वफ़ा का बंदा हूँ उल्फ़त का पासदार हूँ मैं / साइल देहलवी
वफ़ा का बंदा हूँ उल्फ़त का पासदार हूँ मैं
हरीफ़-ए-क़ुमरी-ओ-परवाना-ए-हज़ार हूँ मैं
जुदा जुदा नज़र आती है जल्वा-गाह की तासीर
क़रार हो गया मूसा को बे-क़रार हूँ मैं
ख़ुमार जिस से न वाक़िफ़ हो वो सुरूर हैं आप
सुरूर जिस से न आगाह हो वो ख़ुमार हूँ मैं
समा गया है ये सौदा अजीब सर में मिरे
करम का अहल-ए-सितम से उम्मीद-वार हूँ
एवज़ दवा के दुआ दे गया तबीब मुझे
कहा जो मैं ने ग़म-ए-हिज्र से दो चार हूँ मैं
शबाब कर दिया मेरा तबाह उल्फ़त ने
ख़िज़ाँ के हाथ की बोई हुई बहार हूँ मैं
क़रार दाद-ए-गरेबाँ हुई ये दामन से
कि पुर्ज़े पुर्ज़े अगर हो तो तार तार हूँ मैं
मिरे मज़ार को समझा न जाए एक मज़ार
हज़ार हसरत ओ अरमाँ का ख़ुद मज़ार हूँ मैं
‘जहीर’ ओ ‘अरशद’ ओ ‘ग़ालिब’ का हूँ जिगर-गोशा
जनाब-ए-‘दाग़’ का तिल्मीज़ ओ यादगार हूँ मैं
अमीर करते हैं इज़्ज़त मिरी हूँ वो ‘साइल’
गुलों के पहलू में रहता हूँ ऐसा ख़ार हूँ मैं