भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
वफ़ा का शौक़ ये किसी इंतिहा में ले आया / शहबाज़ ख्वाज़ा
Kavita Kosh से
वफ़ा का शौक़ ये किसी इंतिहा में ले आया
कुछ और दाग़ मैं अपनी क़बा में ले आया
मिरे मिज़ाज मिरे हौसले की बात न कर
मैं ख़ुद चराग़ जला कर हवा में ले आया
धनक लिबास घटा ज़ुल्फ धूप धूप बदन
तुम्हारा मिलना मुझे किस फ़ज़ा में ले आया
वो एक अश्क जिसे राएगाँ समझते थे
कुबूलियत का शरफ़ वो दुआ में ले आया
फ़लक को छोड़ के हम दर-ब-दर न थे ‘शहबाज’
ज़मीं से टूटना हम को ख़ला में ले आया