भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
वरकेँ देखियनु गे दाई / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’
Kavita Kosh से
वरकेँ देखियनु गे दाई,
दूध बेचिकय माय, पूतकेँ देलनि केहन लटाई।
गामक लोक केहन उल्हड़ सब कयलक रोक न छेक,
दुधकट्टू बौआक देहपर रहतनि मासु कतेक।
पोसयमे जे खर्चा पड़लनि सेहो कयल असूल,
माय छथिन थल कमल सनक आ बाप धुथूरक फूल।
सुन्दरतामे मौसी कटथिन कौआ धरिकेर कान,
घर बिआहि तैयो लय गेलथिन मौसा हिनक अकान।
सखी मालती-लता हमर आ वर छथि टेढ़ बबूर,
चिन्हिए ने सकथिन सौरभ, तँ करती कोना सबूर।
लटपट टाङ, देह छनि लकलक, फकफक छोड़थि साँस
पोसू हिनका खोआ पियाकऽ राखू बारह मास।
बहिन बेचि ई फीट कऽ फाट कऽ अयला करय विआह,
गोर नार ऊपर सँ भीतर वंशे हिनक सियाह।
(जयबाबा वैद्यनाथ फिल्ममे)