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वर्जनाएँ / सुमित्रानंदन पंत

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तुम स्वर्ण हरित अन्धकार में
लपेटकर

कई रेंगने वाली
इच्छाएँ ले आते हो,
जिनकी रीढ़
उठ नहीं सकती !

इनका क्या होगा
मैं नहीं जानता !
पिटारी खोलते ही
टेढ़े-मेढ़े साँपों-सी
ये
धरती भर में
फैल जाती हैं !

कौन शक्ति इन्हें बान्धेगी
कौन कला समझाएगा,
कौन शोभा अलँकृत करेगी ?
ये मधु-तिक्त ज्वलित-शीत
वर्जनाएँ हैं ! —
जो अब मुक्त हो रही हैं !

तुम्हारी सुनहली अलकों की
ये फूलमाल बनेंगी,
इनकी मादन गन्ध पीकर
मृत्यु जी उठेगी ।

तुम स्वर्ण हरित अन्धकार में
लपेटकर
अमृत के स्रोत
ले आए थे,

जो हृदय शिराएँ बन
समस्त अस्तित्व में
नवीन रक्त
सँचार कर रही हैं !