भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वर्तनी / हरे प्रकाश उपाध्याय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं जब लिखता हूँ
थोड़ी वर्तनी गलत हो जाती है
थोड़ी भाषा बिगड़ जाती है
थोड़ी बात कहता हूँ
थोड़ी रह जाती है

थोड़ा कागज काला होता है
थोड़ा सफेद रह जाता है
थोड़ी रोशनी के खयाल से लिखता हूँ
थोड़ा अंधेरा अच्छा लगता है

समूची पकड़ में नहीं आती चीजें
जितना सोचता हूँ उसका
थोड़ा ही पाता हूँ
थोड़ा कह पाता हूँ
थोड़ा कहने से रह जाता हूँ

जो हो गई गल्ती-सल्ती
जो रह गया है अधूरापन
उसके लिए
कृपया महान लोगों से संपर्क करें
वे कम नहीं हैं दुनिया में
वे भरे-पूरे शुद्ध-समूचे का दावा कर रहे हैं

उनका ही संसार सब चीजों से भरता जा रहा है
मेरे जैसे नाचीजों पर चढ़ी जा रही है उनकी अमरबेल...।