वर्तमान पर तीन व्यंग / मोहन अम्बर
चौराहे पर खड़ा-खड़ा मैं आज तुम्हारी हाट में,
बेच रहा हूँ वे अनुभव जो मिले उमर को बांट में,
पहले दर्द सुनो बचपन का उँगली दाबो ओंठ तले,
अभिनय करो अचम्भे जैसा झूठ नगर में पले-पले,
क्यों कि तुम्हारी अर्थ-व्यवस्था ऐसा पाठ पढ़ा रही।
एक फूल पर रेशम ढाँको दस रहने दो टाट में,
चोर पसीना बड़ी शिफत से रखलो लोह-कपाट में,
अगर जवानी का दुख गाऊँ तो तुम सत्य न मानोगे,
कानों में उँगली दे देकर तर्क बिताने तानोगे,
क्यों कि तुम्हारी परम्पराएँ ऐसा पाठ पढ़ा रही।
सौ-सौ सपनों को फाँसी दो धरम करम की डाँट में,
पनघट पर तो पाप कमाओ धो लो नदिया घाट में,
बड़ा अजूबा हाल तुम्हारे साहूकार बजार का,
किसी चेहरे पर न दिखाई देता चिह्न दुलार का,
क्यों कि तुम्हारी सामाजिकता ऐसा पाठ पढ़ा रही।
कभी पराई पीर न देखो अपने-अपने ठाट में,
रखो तौल की काँटी सीधी छेद करो हर बाँट में,
चौराहे पर खड़ा-खड़ा मैं आज तुम्हारी हाट में,
बेच रहा हूँ वे अनुभव जो मिले उमर को बांट में।