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वर्तमान लाने को कहाँ वे अतीत गए / श्यामनन्दन किशोर

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जीवन के इतने दिन बीत गए!
वर्तमान लाने को कहाँ वे अतीत गए?

सही, कर्ण नहीं, लेकिन जोकुछ था हँस-हँस दिया!
बदले में केवल अपने लिए आशिष लिया!


तट पर सभी शत्रु पीटते ताली, छोड़ मझधार सभी मीत गए!
तृष्णाएँ बुझने के लिए बनी नहीं, चाहें चिन्ताएँ बुझ जायें जल;
फिर भी कुछ पाते रहने को ही मानव को पड़ता नहीं है कल!
इससे बड़ी कौन-सी विडम्बना, प्यास बुझी नहीं किन्तु घट के
घट रीत गए!

सूरज चाँद उगे रोज, लाखों सितारे भी चमके,
दुनिया वालों ने भी रोशनी जलायी जमके
लेकिन अस्तित्व कब अँधेरे का मिट पाया, प्रकाश की प्रशंसा
के कितने लिखे गीत गए!

जीवन आद्यन्त समर, लड़ना ही पड़ता है!
थोड़ा विश्राम करूँ, ऐसा मन करता है!
जीत-हार का निर्णय मुश्किल है, कितने रणजीत गए,
कितने भयभीत गए!

बालू की रेती पर महल जो बनाये, तो क्या होगा!
पानी की धारा में नाम जो लिखाये तो क्या होगा!
सबकी कहानी अनजानी ही रह गयी, कितने कर घृणा और
कितने कर प्रीत गए।

(22.101983)