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वर्तमान / नीरजा हेमेन्द्र

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मैं नही मान सकती कि
कंक्रीट के जंगलों में
वसंत के पीले फूल नही खिलेंगे
धूप भरी पगडंडियों के अन्तिम छोर पर
कोई गझिन वृक्ष खड़ा
प्रतीक्षा कर रहा होगा अब भी
थके समय का
एक दिन चाँद पुनः
छत से होता हुआ मेरे आगँन में उतर आयेगा
रौंद दी गयी नन्हीं दूब
पुनः खड़ी होगी दृढ़ता से
हरी घास बिछ जायेगी भूमि पर
और एक दिन ले लेगी यह
रूप उस हथियार का
जिससे जीती जाती है
अधिकारों की लड़ाई
इतिहास के पन्नों पर
पुनः दोहरायी जायेंगी विजयगाथायें
नन्ही दूब का संघर्श वर्तमान है
वर्तमान इतिहास नही बन सकता।