भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
वर्षा / शैलेन्द्र शान्त
Kavita Kosh से
बादल गरजा
बिजली चमकी
मगन हुई बरसा रानी
डूब गई राजधानी
दुखी हुए नागरिक
महानागरिक की बढ़ी परेशानी
ख़ुश हुआ खेतिहर
मन मोर-सा नाचा
सपने ने ली अंगड़ाई
इस मर्तबा
थोड़ा-बहुत कर्ज़
चुक ही जाएगा भाई।