वर्षों के बोझ तले / भूपिन्दर बराड़
वर्षों के बोझ तले लटक गए
माँ के बूढ़े कानों में
चाँदी के पुराने झुमकों से
लटकते है तारे,
फीका पड़ गया है
आकाश का रंग
घुटनों और कोहनियों पर
बचपन में लगी चोटों की तरह
मिट रहे हैं यादों के निशान
बालू के टीलों से लुढ़कती
अपनी ही काया याद नहीं
याद नहीं रह गया है
कुछ भी अब ठीक से
बिस्तर पर लेटे
याद आते है बस दो शब्द: सो जाओ
मैली धोती में माँ की अर्धनग्न पीठ:
हो चुकी रात बहुत सो जाओ
सो जाओ कहती थी माँ
मेरी और करवट लेती हुई
छत तक उतर आये तारे
घुलने लगते थे उसकी आती जाती साँसों में
घुलने लगते थे मेरे चारों ओर
नींद का गाढ़ा पानी बनकर
शहर का शोर डूबता था उस पानी में
डूबती थीं अच्छी बुरी यादें
सो जाओ माँ कहती
और उसकी खुली आँखों में
एक चुप प्रार्थना घिरने लगती
स्वप्नहीन इन रातों में कुछ न घटे
कट जाये यह रात, सुबह हो, कुछ न घटे
कनखियों से उसे देखता
सोने का बहाना करता
मैं सचमुच सो जाता था
सब कुछ भूलकर
सुबह आती
तो गुनगुने पानी सी बहती
माँ के हाथ बन
मेरे अंगों पर फिसलती
गुसलख़ाने में
साबुन के गुबारों संग उड़ती
खिड़की से छँटकर आती धूप में
माँ का बदन
चांदी के पेड़ सा लगता
और भी बहुत कुछ
अच्छा था उन दिनों में
जिसके रहते निगली जा सकती थी
कड़वी दवाई
सहन हो जाता था
पिता जी का अचानक
फूट पड़ा गुस्सा
बस नहीं सहन होती थीं
तो माँ की डबडबाई आँखें
जिसका कारण वह
रसोई का धुआं बताती थी
सब कुछ ही तो अच्छा था उन दिनों में
फिर न जाने कहाँ से उतरी वह रात
जब माँ की जगह
मेरे साथ लेटी थी चचेरी बहन
मैं तारों से पूछ रहा था
उस रात के बारे में
जब मैं पैदा हुआ था
अचानक एक तेज़ गंध बिखरी
रात के अँधेरे में
सामने वाले कमरे में
जहाँ माँ थी, बिजली कौंधी
तारे उछले एक चीख के साथ
मेरी आँखों में चुभ गए
मैंने जाना चाहा माँ के पास
माँ नहीं थी
कहीं नहीं गयी है वह
यहीं है तुम्हारे आस पास
मेरी चचेरी बहन ने कहा
मुझे सीने से चिपकाते हुए
दुबका हुआ, सुबकता हुआ
मैं गयी रात तक लेटा रहा उसके पास
फिर न जाने कैसे
मेरे कानो में पड़ने लगी
दूर के टीलों से गुज़रती
सूखी हवा की आवाज़:
हो चुकी रात बहुत, सो जाओ