भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
वर्ष तो बीते मगर वह मन न पाए आजतक / रुचि चतुर्वेदी
Kavita Kosh से
इक ज़रा-सी बात पर वह रूठकर कुछ यों गये,
वर्ष तो बीते मगर वह मन न पाये आज तक।
ये धरा बिन प्रेम बंजर थी इसे मधुवन किया,
देह को दे प्रीत पावन नेह का चन्दन किया।
फिर उसी चन्दन से सुरभित इस सुगन्धित देह ने,
नेह से उस नेह को पाने सतत अनशन किया।
शब्द ने हर शब्द थामे गीत की रचना रची,
किन्तु वे स्वर वेदना का सुन न पाये आज तक॥
वर्ष तो बीते मगर वह मन न पाये आज तक ...॥
कृष्ण तो तुम थे नहीं राधा मुझे समझा ही क्यों,
रुक्मिणी-सा नेह बँधन इत कहो उलझा ही क्यों,
प्रेम देकर छीन लेना पाप है सबसे बड़ा,
प्रेम उलझन में उलझ यह प्रश्न फिर सुलझा ही क्यों।
थे बड़े ज्ञानी मुझे हर ज्ञान का दर्पण दिया,
हो गुणों की खान लेकिन गुन न पाये आज तक॥
वर्ष तो बीते मगर वह मन न पाये आज तक॥