वर्ष मास दिन याद नहीं हैं / बलबीर सिंह 'रंग'
वर्ष मास दिन याद नहीं हैं,
जिस दिन तुम धरती पर आईं;
माटी की सुबरन काया में,
ले कर पचरंगी परछाई।
वे दुर्दिन थे जब दुहिता का,
जन्म एक अभिशाप बना था;
पुरुष जन्य को प्रथा प्रकृति का,
पुण्योद्भव भी पाप बना था।
अधरों बीच ‘प्रवेश गीत’ था,
नयनों में था ‘साँझ सकारे’;
चौदह रतन उमर के ले कर,
जब तुम आई मेरे द्वारे।
रच-रच रूप तुम्हारा मैंने,
चित्र उतारा अन्तर पट पर;
कितनी बार मिले क्या जानें,
हम-तुम दोनों गंगा तट पर।
सपनों की धरती पर मैंने
नभ से ऊँचे महल बनाए;
हँसते-हँसते पतझर काटे,
रो-रो बीस बसन्त मनाए।
उर में आग लिए तुम आई,
मैं था लिए सिंधु की थाती;
तुमने आ कर और बढ़ा दी,
मेरे स्नेह दीप की बाती।
मरुथल में तुमको ले आया,
सुमुखि तुम्हारा भाग्य हठीला;
कहाँ सुभग ‘सज्जनपुर’ नगरी,
और कहाँ ये ‘ग्राम कटीला’?
तुमने निष्ठा सहित जपी है,
मेरे जीवन की गायत्री;
सत्यवान की बात न मुझमें,
पर तुम सचमुच ही सावित्री।
करता रहूँ सदा तुम जैसी,
जीवन संगिनि की पहुनाई;
देता रहे तुम्हारा साथी,
तुमको सौ-सौ जनम बधाई।