भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
वर दो, लड़ने जाऊँगा / त्रिलोक सिंह ठकुरेला
Kavita Kosh से
हल्दी घाटी किधर पिताजी,
मैं भी लड़ने जाऊँगा।
घोड़ा, भाला मुझे दिला दो,
मैं राणा बन जाऊँगा ॥
बैरी के छक्के छूटेंगे,
जब भाला चमकाऊँगा।
भाग जायेंगे शत्रु डर कर
समर भूमि जब जाऊँगा॥
इतने पर भी डटे रहे वह
तो फिर रण होगा भारी।
कट कर शीश अनेक गिरेंगे
देखेगी दुनियाँ सारी॥
चाहे शीश कटे मेरा भी,
तनिक नहीं घबराऊँगा।
पिता, आपका वीर पुत्र हूँ,
वर दो, लड़ने जाऊँगा॥