वसंंत,चींटियां और मनुष्यता / कुमार मुकुल
वसंत आ चुका है
यूँ बहुत से पेड़ अब भी नंगे खड़े हैं
पर चींटियों की फ़ौज़ बहराने लगी है
अपने बिलों-दांदरों से
अब मुझे भी बहराना होगा
अपने आलस्य अपने मौन से
जमने को रखे दूध पर
कैसी पिल पड़ी हैं वे
जैसे माओ की सेना
एक जमात धंस जा रही
तो दूसरी उनके मृत सरों पर सवार
पहुँचना चाह रही
अपनी भूख अपनी प्यास तक
करोडों करोड़ लोगों
तुम भी उठो अब
बहराओ अपनी दरारों से
और लील जाओ
जो तुम्हारी भूख प्यास पर कब्जा किये बैठे हैं
कि अब बंटवारा बिल्कुल साफ होता जा रहा
कि अब कोई मुकाबला नहीं
कि गिनती के हैं वे अब
दस बीस पचास सौ बस
उठो कि फ़ैज़ पुकार रहे
'कटते भी चलो बढ़ते भी चलो...'
उठो और मनुष्यता की इस
धोखे की टाट से गिरो
पर इस बार शेर बाघ-बघेरों के पाले मे नहीं
कि वे तो निश्चिन्ह हो चुके कब के
गिरो अब चींटियों की पांत में
कि मनुष्यों से बच नहीं पा रही मनुष्यता
चींटियों से बच जाये शायद।