भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वसंती बहार / मुकेश कुमार यादव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सजना के बोली-मिठ्ठो अपार।
रंगो के होली, उमंगो हज़ार।
घर-ऐंगना-द्वार।
वसंती-बहार।
सजना कहै छै-सजनी कचनार।
तोरो, नखरा हज़ार।
हमरा लागै, कचार।
सजनी कहै छै-बदलो विचार।
फागुन रो प्यार।
केनां लागौ कचार?
जिया, जरलो हमार।
पिया, हमरो बेकार।
घर-ऐंगना-द्वार।
वसंती-बहार।
सजना कहै छै-सजनी के गाल।
अबकी मलबै गुलाल।
सजनी, सुनी के भै गेलै लाल।
फुलाय लेलकै, गाल।
भेलै, बबाल।
घर-ऐंगना-द्वार।
वसंती-बहार।
सजनी कहै छै-सजन अबकी होली।
चुनर-लहंगा-चोली।
मने-मन टटोली।
बोली देलकै खोली।
टोला-मोहल्ला।

एकदम खुल्लम-खुल्ला।
करतै धमाल।
घर-ऐंगना-द्वार।
वसंती-बहार।
सजनी कहै छै-सजन छै, अनाड़ी।
नञ् लहंगा, नञ् साड़ी।
नञ् घोड़ा, नञ् गाड़ी।
अगाड़ी-नञ्-पिछाड़ी।
खेती-नञ्-बाड़ी।
बलम-सरकारी।
बलमा-बबाल।
घर-ऐंगना-द्वार।
वसंती-बहार।
सजना कहै छै–सजनी, हमरो जान।
सजनी, हमरो प्राण।
सजनी, सुनी मगन।
सजनी, गुणी मगन।
सजनी, गावै भजन।
घर-बुहारै-मगन।
निहारै-गगन।
सजनी, लागै कमाल।
घर-ऐंगना-द्वार।
वसंती-बहार।