वसंतोत्सव / सूरदास
झूलत स्याम स्यामा संग ।
निरखि दंपति अंग सोभा, लजत कोटि अनंग ।
मंद त्रिविध समीर सीतल, अंग अंग सुगंध ।
मचत उड़त सुबास सँग, मन रहे मधुकर बंध ॥
तैसिये जमुना सुभग जहँ, रच्यौ रंग हिंडोल ।
तैसियै बृज-बदू बनि, हरि चितै लोचन कोर ॥
तैसोई बृंदा-बिपिन-घन-कुँज द्वार-बिहार ।
बिपुल गोपी बिपुल बन गृह, रवन नंदकुमार ॥
नित्य लीला, नित्य आनँद, नित्य मंगल गान ।
सूर सुर-मुनि मुखनि अस्तुति, धन्य गोपी कान्ह ॥1॥
नित्य धाम बृंदाबन स्याम। नित्य रूप राधा ब्रज-बाम ॥
नित्य रास, जल नित्य बिहार । नित्य मान, खंडिताऽभिसार ॥
ब्रह्म-रूप येई करतार । करन हरन त्रिभुवन येइ सार ॥
नित्य कुंज-सुख नित्य हिंडोर । नित्यहिं त्रिबिध-समीर-झकोर ॥
सदा बसंत रहत जहँ बास । सदा हर्ष,जहँ नहीं उदास ॥
कोकिल कीर सदा तहँ रोर । सदा रूप मन्मथ चितचोर ॥
बिबिध सुमन बन फूले डार । उन्मत मधुकर भ्रमत अपार ॥
नव पल्लव बन सोभा एक । बिहरत हरि सँग सखी अनेक ॥
कुहू कुहू कोकिला सुनाई । सुनि सुनि नारि परम हरषाईं ॥
बार बार सो हरिहिं सुनावति । ऋतु बसंत आयौ समुझावतिं ॥
फागु-चरित-रस साध हमारैं । खेलहिं सब मिलि संग तुम्हारैं ॥
सुनि सुनि सूर स्याम मुसुकाने । ऋतु बसंत आयौ हरषाने ॥2॥
पिय प्यारी केलैं जमुन तीर । भरि केसरि कुमकुम अरु अबीर ॥
घसि मृगमद चंदन अरु गुलाल । रँग भीने अरगज वस्त्र माल ॥
कूजत कोकिल कल हँस मोर । ललितादिक स्यामा एक ओर ॥
बृँदादिक मोहन लई जोर । बाजै ताल मृदंग रबाब घोर ॥
प्रभु हँसि कै गेंदुक दई चलाइ । मुख पट दै राधा गई बचाइ ॥
ललिता पट-मोहन गह्यौ धाइ । पीतांबर मुरली लई छिंड़ाइ ॥
हौं सपथ करौं छाँड़ौ न तोहि । स्यामा जू आज्ञा दई मोहिं ॥
इक निज सहचरि आई बसीठि । सुनी री ललिता तू भई ढीठि ॥
पट छाँड़ि दियौ तब नव किसोर । छबि रीझि सूर तृन दियौं तोर ॥3॥
तेरैं आवैंगे आजु सखी हरि, खेलन कौं फागु री ।
सगुन सँदेसौ हौं सुन्यौं, तेरै आँगन बोलै काग री ॥
मदनमोहन तेरैं बस माई, सुनि राधे बड़भाग री ।
बाजत ताल मृदंग ताल मृदंग झाँझ डफ, का सोवै, उठि जाग री ॥
चोवा चंदन लै कुमकुम अरु, केसरि पैयाँ लाग री ।
सूरदास-प्रभु तुम्हरे दरस कौं, राधा अचल सुहाग री ॥4॥
हरि सँग खेलति हैं सब फाग ।
इहिं मिस करति प्रगट गोपी,,उर-अंतर कौ अनुराग ॥
सारी पहिरि सुरँग, कसि कंचुकि, काजर दै दै नैन ।
बनि बनि निकसि-निकसि भईं ठाढ़ी, सुनि माधौ कै बैन ॥
डफ बाँसुरी रुंज अरु महुअरि, बाजत ताल मृदंग ।
अति आनंद मनोहर बानी, गावत उठति तरंग ॥
एक कोध गोविंद ग्वाल सब, एक कोध ब्रज-नारि ।
छाँड़ि सकुच सब देतिं परस्पर, अपनी भाई गारि ॥
मिलि दस पाँच अली चली कृष्नहिं, गहि लावतिं अचकाइ ।
भरि अरगजा अबीर कनक-घट, देतिं सीस तैं नाइ ॥
छिरकतिं सखी कुमकुमा केसरि, भुरकतिं बंदन धूरि ।
सोभित हैं तनु साँझ-समै-घन , आए हैं मनु पूरि ॥
दसहूँ दिसा भयौ परिपूरन, सूर सुरंग प्रमोद ।
सुर-बिमान कौतुहल भूले,निरखत स्याम-बनोद ॥5॥
नंद नँदन बृषभानु किसोरी, मोहन राधा खेलत होरी ।
श्रीबृंदावन अतिहिं उजागर, बरन बरन नव दंपति भोरी ॥
एकनि कर है अगरु कुमकुमा , एकनि कर केसरि लै घोरी ।
एक अर्थ सौं भाव दिखावति, नाचति तरुनि बाल बृध भोरी ॥
स्यामा उतहिं सकल ब्रज-बनिता, इतहिं स्याम रस रूप लहो री ।
कंचन की पिचकारी छूटति, छिरकत ज्यौं सचुपावैं गोरी ॥
अतिहिं ग्वाल दधि गोरस माते, गारी देत कहौ न करौ री ।
करत दुहाइ नंदराइ की, लै जु गयौ कल बल छल जोरी ॥
झुंडनि जोरि रही चंद्रावलि, गोकुल मैं कछु खेल मच्यौ री ।
सूरदास -प्रभु फगुआ दीजै, चिरजीवौ राधा बर जोरी ॥6॥
गोकुलनाथ बिराजत डोल ।
संग लिये बृषभानु-नंदिनी, पहिरे नील निचोल ॥
कंचन खचित लाल मनि मोती, हीरा जटित अमोल ।
झुलवहिं जूथ मिलै ब्रजसुँदरि, हरषित करतिं कलोल ॥
खेलतिं, हँसतिं, परस्पर गावतिं, बोलति मीठे बोल ।
सूरदास-स्वामी, पिय-प्यारी, झूलत हैं झकझोल ॥7॥