वसंत ऋतु / प्रेम प्रगास / धरनीदास
चौपाई:-
पुनि वसन्त जब आयउ पासा। तब सुन्दरि मन अधिक उदासा॥
कुहकति कोकिल पवन झंकोरा। अजहुं न आवत प्रीतम मोरा॥
उतहिं फाग खेलै सब लोगा। जिनको प्रीतम संग संयोगा॥
तरुवर सघन भये पतझारा। फुले टेस जनु अगिन अंगारा॥
ज्ञानमती अति तपत शरीरा। अंगहि अंग उठै वहु पीरा॥
विश्राम:-
तव सुन्दरि सहास किया, धरु योगिनि को भेस।
आठो अंग विभूतिकरि, जटा जगायो केस॥201॥
अरिल:-
आवत समय वसन्त, पात झरिगे तवै।
लागत विरह वयारि, गात टूटत सबै॥
निरखत रहा न ज्ञान, कान कर लाइया।
त्राहि त्राहि जगदीश, शरण गोहराइया॥
कुंडलिया:-
दर्शन राजकुमार बिनु, विकल हृदय राजकुमारि।
जटा भूति भूषन धरी, नींद तजी वर नारि॥
नींद तजी वर नारि, धरी योगिन को भेसा।
अजहुं न आवत कन्त, न पावत कुशल संदेसा॥
जपति वाल कर माल, लाल अब होहु न परसन।
छिन छिन कल ना परे, विना प्रियतम के दरसन॥
सवैया:-
आव न कन्त वसन्त समय, धरनी धनि योगिनि भेस बनाओ।
देखत मोहि न ज्ञान रहो, कछु मानो छुटी ठग घोरि पिया ओ॥
नाचत लोग वजावत गावत, सौध सुगंध सवै छिरकाओ।
ज्ञानमती मनमोहन लागि, दसो दिशि वारि दवा जनुलाओ॥
सोरठा:-
आयो समय वसंत, कन्त न आवत मोहि पंह।
होत प्राण को अन्त, समुझि सनेही आपनो॥