भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
वसंत बंदना / अपूर्व भूयाँ
Kavita Kosh से
फिर से टपक रही है बारिश
जला हुआ मिट्टी और राख हुआ खेत-खलिहान में
हरे घास का लहकना तेज हो रहा है
युवा भैंसा की तरह ओजस्वी हो रहे हैं पेड़-पोधे
गाँवों में उबला हुआ नवान्न की सुगंध फैल रही है
पता नहीं कौन जलाया था वो आग अकाल निदाघ का
अभी प्रेमी मछलियों का खलबली ह्रदय में ।