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वसंत / संदीप निर्भय
Kavita Kosh से
देहाती के बेटे ने कल शाम 9: 50 पर
कौच्चुवेली एक्स्प्रेस पकड़ ली थी
गाँव, गली और खेजड़ा
जाते हुए उसे देखते रहे
दादी के एक डंडी वाले चश्मे की तरह
बेरोजगारी का थैला सिर तले देकर
पढ़ता रहा रात-भर
त्रिलोचन और पाश की कविताएँ
सिवाय दुनियादारी को छोड़
उसके पास पढ़नें के लिए
अब कोई ओर दूजी किताब नहीं रही
अलसुबह जब उसकी आँखें खुली
रेल की खिड़की से देखा
कि एक बुढ़िया
पहाड़ से पीठ लगाए सुस्ता रही थी
जैसे सुस्ता रही हो गेहूँ के पौधे पर गौरैया
उसके माथे से फिसलती हुईं पसीने की बूँदें
झुर्रियाँ पड़े चेहरे से होकर
गिर रही थीं जब पत्थर पर
पत्थर हो गया था हरा
तो लगा
बीर बहूटी की तरह
अभी-अभी धरती पर वसंत उतरा है।