वसन्ती बया / रामइकबाल सिंह 'राकेश'
बादामी चम्पई तुम्हारी चोंच,
चढ़ी शान पर कला-कटारी तेज़।
पंजे बड़े और काँटे नाखून,
खैरी ग्रीवा, दुम भूरी रंगीन।
फ़ालसई, कत्थई तुम्हारे पंख,
पेट तुम्हारा उजला जैसे शंख।
रामबाँस, केला, कुश, सरपत काँस;
जिनके वल्कतन्तु, रेशों से नर्म।
बेर, ताड़, पीपल में छायादार,
बना तुम्हारा खोंथा तुम्बाकार।
शिव का जैसे जटाजूट विस्तीर्ण,
औंधा लटका बोतल-सा संकीर्ण।
घटपर्णी पौधे-सा नलिकाकार,
कपट-कल्पना का जिसमें विस्तार।
बने विवर जिसमें लमछवने गोल,
खोल और खाने ऊपर तक पोल।
ढलवाँ, सीढ़ीदार चढ़ाव-उतार,
भूल-भुलैयाँवाले चक्करदार।
राजलाल, पड़की, हारिल कठफोर,
शकर खोर, दरजिन या पीलक, मोर;
नहीं तुम्हारी कला-चंचु के तुल्य,
कर सकते निर्माण नीड़-प्रासाद।
हे मेरे प्रिय बन्धु कला-सम्राट!
तुलसी, शेसपियर, शेली विख्यात!
नहीं तुम्हारा भूतल से संसर्ग,
और नहीं अम्बर से भी सम्पर्क!
पर, तुम दोनों के मालिक-मजदूर,
दोनों लोकों में, दोनों से दूर!
रहो टँगे उल्टे त्रिशंकु-से मूढ!
रहो झूलते झूले घन में झूम!
जनवाणी की पिकी क्षुब्ध निरुपाय,
उड़ती-फिरती अन्धकार में हाय!
रहने को न बसेरा, ठौर-ठिकाना,
ढूँढ़ रही आश्रय होकर हैरान!
पर, तुम अपना एक अलग संसार,
निर्मित करते पैगोड़ा, मीनार।
मिट्टी में चिपका नीलम उड्डीन,
जला नगीने जुगनू के रंगीन।
दीप निराले पंखदार गतिमान,
चमकीले अबरक़ जैसे द्युतिमान।
परदेनुमा झोंझ के भीतर पैठ,
बेफ़िक्री से अगम कूप में बैठ;
से अण्डे मत भद्दे, धब्बेदार,
धूमिल, मटिए, गन्दूमे, बेकार।
परम्परा के छिलके से प्राचीन,
अवगुंठित आदर्शों से गतिहीन,
जड़वत ढेले अथवा उपल-समान,
मत अण्डे दो मटमैले निष्प्राण।
नोचेंगे भूखे आलोचक गिद्ध,
आज तुम्हारी अमर कला की लाश!
ऊँचे आसमान से चक्कर काट,
नीचे उतर भूमि पर ठोस सपाट!
हे मेरे प्रिय विहग कला-शृंगार!
मेरा धन्यवाद तुमकी सौ बार!
(रचना-काल: दिसम्बर, 1948। ‘नया समाज’, जून, 1949 में प्रकाशित।)