वसन्त-गीत / सांध्य के ये गीत लो / यतींद्रनाथ राही
झूमने महुए लगे हैं
आम बौराने लगे
यों अबोले बैठने के
ये सुहाने क्षण नहीं हैं
सो रहे हैं
नींद गहरी
वे सभी सुकुमार सपने
पढ़ सको तो
भोजपत्रों पर लिखे
अभिसार अपने
अन्तरिक्षों में किसी
अहसास के
धुँधले सफर में
मिल गए होंगे कभी
शायद किसी सूनी डगर में
याद की पलकें उनींदी
खुल रही हैं
पर वसन्ती नेह-
आमन्त्रण नहीं हैं।
खिले कचनार से
हम भी
दहकते थे पलाशों में
बिखरता गन्ध-मादन था
कभी अपनी उसाँसों में
कभी सरसों
हमारे नाम से ही
झूम उठती थी
झनकती झाँझरें
पगडंडियों को
चूम उठती थीं
ऋतु वही है, प्यार है
बातें वहीं हैं
किन्तु विपणन है यहाँ
अर्पण नहीं हैं।
गीत वासन्ती मिलेंगे
झील की अँगड़ाइयों में
आँगनी किलकारियों की
वत्सला ऊँचाइयों में
एक पल-पल
उस वसन्ती रूप को
जी भर जिया है
और जिस माधुर्य घट को
ओक में भर-भर पिया है।
व्यक्त हम कैसे करें अब
शब्द बैठे मौन साधे
रूप को
दर्पण नहीं हैं।