वसन्त-सप्तक / विमल राजस्थानी
सा
प्रकृति पुरुष में, कली फूल में बदल रही है
मधुर अमिय गुदगुदी रम रही अंग-अंग में
जीवन खुल कर खेल रहा, यौवन उमंग में
कोकिल की काकलियों से सुधि बहल रही
प्रकृति पुरुष में, कली फूल में बदल रही है
मिट्टी की सोंधी सुगन्ध छा रही गगन में
शबनम की बूँदें पत्तों से फिसल रही है
प्रकृति पुरुष में, कली फूल में बदल रही है
रे
पीले पात झरे
लगे झूमने वृन्त-वृन्त पर पल्लव हरे-हरे
पीले पात झरे
लगे झूमने वृन्त-वृन्त पर पल्लव हरे-हरे
पीले पात झरे
धानी चुनरी ओढ़ धरा दुलहिन-सी बनी-ठनी
पुरुष-प्रकृति के मधुर मिलन का माध्यम सहज बनी
दूबों की फुनगी पर पतझर के आँसू बिखरे
पीले पात झरे
वन-री विहँस रही, मधु ऋतु का गदराया यौवन
एक अनोखी मादकता में डूब रहा त्रिभुवन
मस्ती की मदिरा से धुल प्राणों के पर निखरे
सतरंगी सपनों के नभ में विहँस उड़ान भरे
पीले पात झरे
ग
हरसिंगार फूले
झूल रही छवि-श्री रति-पति की बाँहों के झूले
हरसिंगार फूले
पढ़ता मनसिज रति रानी की चितवन की भाषा
बौराया गुलाब, अलि चम्पा-चुम्बन का प्यासा
गूँज रही कूहू, रसाल में मदिर बौर फूले
पहन वसन वासन्ती कविता ठुमुक-ठुमुक डोले
हरसिंगार फूले
किरणों को आलिंगन सौंपे सरसिज मतवाला
कलियों के अधरों को चूमे कपटी अलि काला
पंछी चहक रहे तरु-फुनगी पर भूले-भूले
चाह रही धरती-अम्बर के अधरों को छूले
हरसिंगार फूले
म
प्रकृति का यौवन गदराया
विरहिन की आँखों का काजल गालों पर छाया
प्रकृति का यौवन गदराया
टीसें छूम छन्न उर-सर की लहरों पर नाचें
रात-रात भर नयन सितारों की छवि-लिपि बाँचें
तपन सौंपती हरसिंगार के विरुए की छाया
रोम-रोम बेधती विलासी मनसिज की माया
प्रकृति का यौवन गदराया
बुझा-बुझा जीवन, यौवन अलसाया-सा आली
बेदरदी प्रिय ने मेरी सुधि मसल-मसल डाली
यह ऋतुराज निगोड़ा ऐसी अकथ पीर लाया
मलयानिल के मिस अन्तर पर बाडव छितराया
प्रकृति का यौवन गदराया
प
ऋतुपति रूप का अम्बार
विपुल पुलकन मृदुल कंपन, गुदगुदी की मार
रेशमी स्मिति, रुई के पहल-सा सुकुमार
ऋतुपति रूप का अम्बार
हरे-पीले-लाल-चितकबरे-सुनहरे कीर
केलि-रत रोमांच-अंबुधि के सुहाने तीर
तितलियों के इन्द्रधनुषी पंख पर छवि-भार
गुंजरित मन-मुग्ध अलियों की हसीन कतार
ऋतुपति रूप का अम्बार
बोरती रस-सिन्धु में मन-प्राण कोयल कूक
विकल विरहिन के हृदय को कर रही दो टूक
झूमती शेफालिका, हँसता मुदित कचनार
सौंपता रति-पति उरोजों को प्रसन्न उभार
ऋतुपति रूप का अम्बार
ध
रस की रेशमी बरसात
यह सुधा रस-स्नात वासर, यह पियूषी रात
रस की रेशमी बरसात
गुदगुदा जाता उनींदे मृकुल को उच्छ्वास
खिलखिला कर झूम उठता बावला मधुमास
लदी फूलों से टहनियों-सी सुकोमल बाँह
फैल जातीं अंक में भरने सुमुखि अज्ञात
रस की रेशमी बरसात
हरी दूबों की फुनगियों पर बिछा छवि-ज्वार
टूट कर बिखरा धरा पर ज्योति का गलहार
झूलती काजल सजे दृग में सजीली रात
फूटता अरुणिम नयन की ज्योत्सना में प्रात
रस की रेशमी बरसात
नी
चहुँदिशि गूँजते छवि-छंद
मुक्त भावों के भ्रमर उर-सम्पुटों में बंद
चहुँदिशि गूँजते छवि-छंद
रास-कुंजों से निःसृत नव रागिनी अनमोल
कल्पना के वृन्त पर नव स्वप्न के हिंडोले
झूलते रस-स्निग्ध प्राणों के विहग सुकुमार
बज रहे धीमे सुरों में ज्योत्सना के तार-
पहन वासन्ती वसन झूमें विटप स्वच्छन्द
चहुँदिशि गूँजते छवि-छंद
गुदगुदा जाता अनिल के मिस छली ऋतुराज
खोलते घूँघट कली को आ रही है लाज
रम रही मन-प्राण में मृदु पिकी की आवाज
बज रही है केलि-कुंजों में मुरलिका आज
छा रही दिशि-दिशि पुलक की मूर्छना, आनन्द
हो रही मन्दाकिनी रस की प्रवाहित मंद
चहुँदिशि गूँजते छवि-छंद
-3 मार्च, 1958