फूलों ने
वसन्त आने पर गुलदस्ते बाँटे,
पर जाने क्यों अपने मन में
चुभे बहुत काँटे !
अम्मा रोगी
बाबूजी का चश्मा बना नहीं,
बच्चों की पिछली फ़ीसों का कर्ज़ा चुका नहीं
गेंदा हंसे जुही इठलाए टेसू मस्त झरे,
पर पुरवैया दर्द बढ़ाए
जड़े रोज़ चाँटे !
महँगाई ने
कमर तोड़ दी गिरवी खेत पड़े,
सुता सयानी देख आँख से मीठी नीन्द उड़े
अमलतास कहकहे लगाए, सोनजुही गाए,
दिन अपने ज्यों रमी खेलते
ताशों को फाँटे !
सम्बन्धों की
गरम रेत पर पाँव रहे जलते,
हुई अकारथ विवश ज़िन्दगी हाथ रहे मलते
गोरी धूप इन्द्रधनु रचती मुखरित क्षितिज हुआ,
पर सहमे दुख के आँगन में
सुख हमको डाँटे ।