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वसन्त उपहार कतऽ अछि / नरेश कुमार विकल
Kavita Kosh से
करू ककरा पर श्रृंगार
हमर मनुहार कतऽ अछि ?
हृदय अछि पछबा सँ विक्षिप्त
वसन्त उपहार कतऽ अछि ?
कुसुमित द्रुमदल सजल अनल मे
प्रकृति में उद्गार कतऽ अछि ?
करू ककरा पर श्रृंगार
हमर मनुहार कतऽ अछि ?
लज्जा सँ कयने बन्द कुंज
दृग, हमर जीवन संघात बनल
कुसुमेषु कोप सँ कानि रहल
अछि कुसुम किए पाषाण बनल।
विकल भृंग, खग हेरि रहल अछि
देव ! हमर आगार कतऽ अछि ?
हृदय अछि पछबा सँ विक्षिप्त
वसन्त उपहार कतऽ अछि ?
जेहि वाचा कें शत् कोटिपूत
ओ कानि रहलि बहबैत नोर
एक बेरे भव पुनि दृग फेरथु
अछि गीत हमर पाड़ैत सोर।
नव पल्लव पर सन्देश कतऽ
कोइली कह रे बाहर कतऽ अछि ?
हृदय अछि पछबा सँ विक्षिप्त
वसन्त उपहार कतऽ अछि ?