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वसन्त का आना तय है / अशोक शाह
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फगुनहट बही है
झड़ रहीं पीत पत्तियाँ
तितलियों-सी उड़ती हुई
फूल कोढ़ियाँ रहें
सोते हुए बच्चों-सा
चादर से सिर निकाल रहे
जड़ें सुगबुगा रहीं
अँगराई लेती हुई
लम्बाई वृक्षों की नाप रहीं
पंडुक अभी बोला है
बलखाती सूर्य-रष्मियों का
द्वार जतन से खोला है
दिषाएँ भी निकल पड़ीं
नभ के उछाह से
दिन के पांव धो रही
रस की धारी पड़ी
हुलसित मन ईख के
पोर-पोर जा चढ़ी
कोयल कहीं तो कूकी है
फ़ाख्ता मुँह खोली है
सनक गयी वातास देखो
साल के गले झूमी है
पतझड़ के कान खड़े हुए
महुए ने इत्र घोला
सेमल कसमसाया है
वसन्त का आना तय है
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