वसन्त दुल्हा बनी केॅ की ऐलै
आम्र मंजरी के मड़वा गमगमाय उठलै
आरो हुन्नें
द्वार छेकाय के सुर जे साधलकै कोयलें
तेॅ सीधे झूमर तक पहुँचिये केॅ नै रुकलै
आबेॅ कोयल के साथें
पिपही की बजैतियै भौरा
लाजोॅ सेॅ पोखरी पर जाय बैठलै,
कमलोॅ के पंखुड़ी पर बैठी केॅ
दिन भरी पिपही बजैतेॅ रहलै।
पपीहा तेॅ फूले नै समावै
पिया केकरो ऐलोॅ रहेॅ
पुकार तेॅ ओकरे छेलै।
आबेॅ हारिल की करतै
गोड़ोॅ के लकड़ी छोड़ी डोली लगैतै द्वार
मैना तेॅ चौक पूरै मेॅ ही बेहाल छै
वसन्त दुल्हा बनी की ऐलोॅ छै
सौंसे धरती निहाल छै।