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वसन्त / कुहकी कोयल खड़े पेड़ की देह / केदारनाथ अग्रवाल
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फिर मैं आया
अब की बार अधिक बौराया
पहले से ज्यादा फूलों की ढेरी लाया
गाँव-गली में गिरि में वन में
रंग बिरंगा मेरा यौवन नहीं समाया