वसन्त / चन्द्रकान्त देवताले
वसन्त कहीं नहीं उतना असर कर रहा
जितना चिडियों की फुदक-चहक में
अख़बार के मुखपृष्ठ पर तो कुछ भी नहीं
उससे अच्छा कहीं ज्यादह कहता गया
जिस पर लदे ताज़े टटके-मटके
जा रहे बिकने हाट में...
मटकों की त्वचा पर आँच की चमक है शेष
उड़ती हुई धूल के बीच
चिड़ियों के बाद मटकों की देह में
कितनी आहट करता है वसन्त...
बच्चियाँ मेरी तो दोनों
न जाने क्या घोक रही हैं सुबह से
पत्नी खाँसती-छींकती
इतवार को धूल-धस्सर से उबारने की कोशिश में
मैंने कहा-"देखो चिडियाएँ कितनी ऊधमी हो गयी हैं."
अनसुना कर वह बोली- "कंडों के उधर हजारों मच्छर
भिनभिनाते उन पर छिड़क दो
फ्लीट-पम्प उठा."
मैं सोचने लगा-कहाँ हैं मच्छर
अख़बार पर या कंडों के पीछे और..वसन्त
फिर देखने लगा चुपचाप खिड़की से बाहर-दूर
जिला जेल की वृहदाकार दीवार
जो गेरुए रंग की दहशत से
रेखांकित कर रही थी वसन्त का आकाश.