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वसन्त / भीमनाथ झा

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क्यो गबैछ 'स्वागत वसन्त', क्यो कहि 'बताह' तकरा हँसि दैछ
ककरो पिकक कूक बस चाही, क्यो रंगेटा तकर देखैछ.

चारू दिसि हम ताकि अबैछि
कहूँ न देखि पड़ईछ ऋतुराज
बदलल भेटय अपन समाज
शिशिर बितल बस, उषम तुलायल-अह वसन्त उड़ि गेल लगैछ.

कूक-आब नहिं कोकिलेक सक
कौओ उचाड़ि लेल से बोल
आब न वाणी ह्रदयक अयना
सभ लग छैक एक सन ढोल
पड़ितहूँ थाप अनेको हाथक, एकहिं रंग सभटा डिमकैछ.

एक डारि में पतझड़तँ पतझड़े
पात सभ ता उड़ियाय
दोसर में नव पल्लव तँ बस
तकरहिं छटा छिटकितहीं जाय
एके गाछ में भिन्न-भिन्न ई रंगवसन्तक अजब लगैछ.

मत्ता शासन सत्ता घूसक
छत्ता तर अछि जे श्रीमंत
तकरे पानि भरे छथि सभ दिन
हकमि-हकमि ऋतुराज बसंत
एक वैह उन्मत्ता, खत्ता खँसय शेष जन जगत जनैछ
ककरो पिकक कूक बस चाही, क्यों रंगेटा तकर देखैछ.