वसीयत / विजय कुमार
मैंने फ़ोन पर देर तक बातें की कुछ नितान्त अपरिचितों से
उनके स्वर बड़े पहचाने लगे
उस परेशान-सी लड़की से मिला पोस्ट ऑफ़िस में
लिखने को क़लम दी
वह जो माँ को मनीऑर्डर भेज रही थी
मैं भीगती मसों वाले लड़कों के खेल में
यूँ ही शामिल हो गया एक दोपहर
एक किक यहाँ से, एक किक वहाँ से
वे जो यहाँ पार्क में हल्ला-गुल्ला, मस्ती, गाली-गलौज से भरे हुए थे
इन्होंने निराशा को अभी जाना नहीं था
चर्चगेट से रात एक बजे अन्तिम लोकल ट्रेन में
एक थका हुआ उनीन्दा मज़दूर बैठा था जो कोने की सीट पर
उसके सपनों में चुचाप दाख़िल हुआ मैं
लड़ता रहा उसके बदमाश मैनेजर से
शराब की दुकान से गए रात निकला एक बूढ़ा
मैंने अपना कन्धा दिया उसे रोने के लिए
एक पर्यटक जो पता भूल गया था इस शहर में
वह चला आया मेरे साथ
अब इसी मोहल्ले का नागरिक है
एक औरत जो गेहूँ का कनस्तर लिए चक्की पर खड़ी थी
अचानक अपना पिछला जनम मुझे बताने लगी
मैंने तो सिर्फ़ उसकी साड़ी पर खिले फूलों की तारीफ़ की थी
मैं ईश्वर नहीं
मैं कुछ भी नही
मैं बस यूँ ही
पर मेरे ही भीतर थे इस सृष्टि के सारे रहस्य
मेरे चारों ओर बिखरे हुए थे
कितनी परिचित आवाज़ों के अनसुने शोर
पुराने अख़बारों की कतरनें
लॉटरी के फेंके हुए टिकट
जेब में अब भी एक पुरानी चवन्नी
और ग्यारहवीं कक्षा की एक सहपाठिन की
नोटबुक का एक पन्ना भी
मैं उस ख़त की फ़ोटो कॉपी कराकर एक दुकान से निकला
और अपनी इस उम्र को वहीं भूल आया
और सिनेमा के पुराने पोस्टरों में देखता रहा अपना एक चेहरा
मैंने कोई ख़ास जीवन नहीं जिया
मैंने बस कुछ एकालाप याद रखे
कुछ खण्डित दृश्यों की असमाप्त कथाएँ
मैं कुछ बताना चाहता था
जो नहीं बता सका
वह एक रहस्य बन गया
बस थोड़े-थोड़े अचरजों को इसी तरह सँभाल कर रखता रहा
बस यह नसीब इसी तरह से लिखा जाना था
मेरे हर वाक्य के अन्त में एक विस्मयादिबोधक चिह्न था
मैंने पोस्टरों में देखा।