वसुन्धरा / विजय कुमार
<दूर उपनगर के प्लेटफार्म नम्बर तीन पर
एक नंग धड़ंग औरत खड़ी है
दिन दहाड़े
सरे आम
बेखबर
आसमान तकती
यह रेनुआँ का कोई पुराना चित्र नहीं है
इस औरत को दो आदमी घूर रहे हैं
बीस आदमियों ने घूरा उसे
फिर तो दो सौ आदमी घूर रहे हैं
पगली है , पगली है
हँसे दो आदमी
बीस आदमी हँसे ज़ोर से
अब तो दो सौ आदमियों की डरावनी हँसी है
प्लेट्फार्म पर यहाँ से वहाँ तक
थोड़ी सी शर्म है इस हँसी में
ढेर सारी मौका परस्ती
और एक छापामार क़िस्म का सुख
बीसवीं सदी के अंतिम दशक का
पर हँसते हुए ये लोग पिछले ज़माने के
कि हँसे तो हँसते ही चले जाएं
ये हँसते हुए दो सौ आदमी
पल भर में गायब हो जाते हैं
सिर्फ एक गाड़ी के आते ही
दूर उपनगर के प्लेटफार्म नम्बर तीन पर सुबह साढ़े नौ बजे खड़ी हुई
हे सृष्टि की अनमोल रचना !
अब इस प्लेटफार्म पर सिर्फ तुम्हारा
निपट नंगापन बचा है
अगली गाड़ी आने तक
तुम धरती की जिस खोह से निकलकर
हमारे संसर में अचानक चली आई
अपनी उस खोह में लौट जाओ
अगले वक़्त में हम तुम्हारे लिए थोड़ा सा रेशम
थोड़े से फल
एक आईना
और एक स्मृति जुटा लेंगे
देखो हमें ध्यान से देख लो ज़रा
शायद इस संसार के अंतिम मनुष्य गिने जाएं
/poem>