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वस्ल के ख़्वाब सज़ा कर के सहर जाती है / कविता सिंह

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वस्ल के ख़्वाब सज़ा कर के सहर जाती है
आलमें-हिज्र में ये रात गुज़र जाती है

दिल पर तारी है मेरे लज़्ज़ते ग़म का ये नशा
इसकी हर शय से मेरी रूह निखर जाती है

दर्द मिलता है यहाँ रोज नई सूरत में
ज़िन्दगी ऐसे ही किस्तों में गुज़र जाती है

बुझ चुकी आग मेरे दिल की ज़माने पहले
राख है बस जो हवा से ही बिखर जाती है

रोज ढलते हैं यहाँ अश्क़ मेरी आँखों से
हसरते-दीद तो पलकों में ठहर जाती है

रूह लर्ज़ां है मेरी उसके असर से ऐ 'वफ़ा'
इक नज़र तीर-सी दिल में जो उतर जाती है