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वस्ल में आपस की हुज्जत और है / 'हफ़ीज़' जौनपुरी
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वस्ल में आपस की हुज्जत और है
इस शकर-रंजी में लज़्जत और है
कुछ नहीं वादा-ख़िलाफी का गिला
आप से हम को शिकायत और है
सुब्ह होते ही बदल जाएगी आँख
रात भर उन की इनायत और है
वाज़ कहता है जो मय-ख़ाने के पास
मय-कशो वाइज़ की नीयत और है
साँस उखड़ी है तिरे बीमार की
अब कोई दम की मुसीबत और है
हूरें भी अच्छी हैं ऐ ज़ाहिद मगर
इन परी-जादों की सूरत और है
इल्म जौहर है ‘हफीज’ इंसान का
सच है लेकिन आदमीयत और है