वहशतों की है अगर कुछ कातिलों से दोस्ती / मधुभूषण शर्मा 'मधुर'
वहशतों की है अगर कुछ कातिलों से दोस्ती ,
ज़हनियत को कब गिरां है मक़तलों से दोस्ती !
रहबरों से दोस्ती के वो न कायल हो सकें ,
जानते हैं जो निभाना काफिलों से दोस्ती !
चलते -चलते रास्तों से जो गिला करते रहे ,
वो मुसाफ़िर क्या करेंगे मंज़िलों से दोस्ती !
महवे-तूफां नाख़ुदा का साथ छोडेंगे नहीं ,
टूटती है , टूट जाए साहिलों से दोस्ती !
जान पाए बस वही क्या चीज़ हैं तनहाइयां ,
जो निभाता आ रहा है महफ़िलों से दोस्ती !
दिलबरों से हम अगर नाराज़ हैं तो क्या हुआ ,
मत समझ लेना करेंगे दिलजलों से दोस्ती !
हां वुजूदों को हिला दे दोस्ती का ख़ात्मा ,
हाँ शुरू होती है लेकिन वलवलों से दोस्ती !
है जिन्हें रखने की आदत दोस्तों से फ़ासले ,
है उन्हीं से भी हमारी फ़ासलों से दोस्ती !