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वहशत दीवारों में चुनवा रक्खी है / 'साक़ी' फ़ारुक़ी
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वहशत दीवारों में चुनवा रक्खी है
मैं ने घर में वुसअत-ए-सहरा रक्खी है
मुझ में साथ समंदर शोर मचाते हैं
एक ख़याल ने दहशत फैला रक्खी है
रोज़ आँखों में झूठे अश्क बलोता हूँ
ग़म की एक शबीह उतरवा रक्खी है
जाँ रहती है पेपर-वेट के फूलों में
वरना मेरी मेज़ पे दुनिया रक्खी है
ख़ौफ़ बहाना है ‘साक़ी’ नग़मे की लाश
एक ज़माने से बे-पर्दा रक्खी है