वहाँ पर बच जाय जो / अज्ञेय
     जहाँ पर धन
     नहीं है राशि वह जिस को समुद
     तेरे चरण पर वार दूँ
     जहाँ पर तन
     नहीं है थाती-मिली वह धूल पावन
     जिस में चोले समान उतार दूँ
     जहाँ पर मन नहीं है यज्ञ का दुर्दान्त घोड़ा
     जिसे लौटा तुझे दे
     मैं समर्थ जयी कहाऊँ
     जहाँ पर जन नहीं है शक्ति का संघट्ट
     जिस में डूब कर ही मैं प्रतिष्ठित व्यक्तित्व पाऊँ
     जहाँ पर अहं भी
     -जो अजाना, अछूता औ’ उपेक्षावश अलक्षित हो
     अनाहत रह गया हो-
     नहीं है अन्तिम निजत्व
     लुटा जिसे औदार्य का सन्तोष मेरा हो
     -वहाँ पर बच जाय जो
     (वह क्या, मैं नहीं यह जानता, ओ देवता, 
     तू जान जो सब जानता है)
     उसी अन्तिम सर्ग पर बच जाय जो
     वही तेरा हो।
     वह जो हो
     जो कुछ है वही है
     उसी को ले : मुक्ति मुझ को दे।
     आज पूरे बोध से यह बात जो मैं ने कही है
     यही मेरा साक्ष्य है : मैं प्रतिश्रुति हूँ साथ
     तेरे : यह मेरी सही है।
दिल्ली-इलाहाबाद (रेल में), 17 दिसम्बर, 1958
	
	