पादन्यासक्वणितरशनास्तत्र लीलावधूतै
रत्नच्छायाखचितवलिभिश्चामरै: क्लान्तहस्ता:।
वेश्यास्त्वत्तो नखपदसुखान्प्राप्य वर्षाग्रबिन्दू -
नामोक्ष्यन्ते त्वयि मधुकरश्रेणिदीर्घान्कटाक्षान्।।
वहाँ प्रदोष-नृत्य के समय पैरों की ठुमकन
से जिनकी कटिकिंकिणी बज उठती है, और
रत्नों की चमक से झिलमिल मूठोंवाली
चौरियाँ डुलाने से जिनके हाथ थक जाते हैं,
ऐसी वेश्याओं के ऊपर जब तुम सावन के
बुन्दाकड़े बरसाकर उनके नखक्षतों को सुख
दोगे, तब वे भी भौंरों-सी चंचल पुतलियों से
तुम्हारे ऊपर अपने लम्बे चितवन चलाएँगी।