वहीं कहीं / इधर कई दिनों से / अनिल पाण्डेय

मन वहीं कहीं भटक रहा था
टहल रहा था वहीँ कहीं
वहीं कहीं से हुआ था निरास
भ्रमण कर रहा है वहीं कहीं

वहीं कहीं से सीखा था चलना
अब रुका हुआ है वहीं कहीं
वहीं कहीं से जुड़ा था कभी यह
फिर जुदा हुआ है वहीं कहीं

वहीं कहीं से खुश था अब तक
दुखी हुआ है वहीं कहीं
वहीं कहीं था याद सब कुछ
सब भूला हुआ है वहीं कहीं

वहीं कहीं सब इसके अपने थे
सपने हुए हैं वहीं कहीं
वहीँ कहीं थे घर-घराने कभी
बेगाने हुए हैं वहीं कहीं

मन के हारे ही हार है अब
मन के जीते ही जीत है
मन के द्वारा ही घृणा है जीवन में
मन के द्वारा ही प्रीति है

मन कहता था सब अपने हैं
बेगाने हैं कहीं कहीं
अपनों से ही अपने हारे हैं
सपने हैं खाली वहीं कहीं

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