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वही दहर के ग़म वही है फ़साना / प्रमिल चन्द्र सरीन 'अंजान'

वही दहर के ग़म वही है फ़साना
वही मैं, वही वो, वही है ज़माना

बहुत याद आया तेरे ग़म में मुझको
महब्बत का अपनी अधूरा फ़साना

न दिल को सुकूं है न आराम जां को
किसी ने कहा है हमें भूल जाना

निगाहों से ही ख़ूने-दिल कर गये वो
न खंज़र उठाया न भाला ही ताना

मेरे कल्बे-मुज़्तर को राहत नहीं है
महब्बत ने छेड़ा है कैसा तराना

मेरे दीदए-तर बयां कर रहे हैं
ज़माने के ज़ुल्मों सितम का फ़साना

ख़बर क्या थी उल्फ़त के मारों को इक दिन
पड़ेगा तेरी याद में खूं बहाना

अगर मिलना होता तो मुश्किल ही क्या थी
मुझे मिल ही लेते वो करके बहाना।