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वही निराशा, वही उम्मीद / राकेश रोहित
Kavita Kosh से
हम वही दुहराई हुई ज़िन्दगी जीते हैं !
हर दिन को एक नई चमक से उठाते हैं
हाथ तक आते-आते
कितनी सारी ऊष्मा
कितना सारा आह्लाद
एक अविश्वास में तब्दील हो जाता है !
एक झिझक भरी स्वीकृति
इस वाक्य के दोनों सिरों पर दौड़ती है
यही दिन मैंने उठाया था
यहीं उम्मीद से मैं भर गया था ।
जीवन सृष्टि का कोई विस्मृत मंत्र है
हर बार अस्पष्ट भाषा के साथ
समिधाएँ हवन होती हैं ।
एक उतेजित हड़बड़ाहट से भरा मैं
सोचता हूँ --
यह दिन, यही जीवन
यही आख़िरी महीने का पहला सप्ताह
यही वर्षान्त की अन्तिम सन्ध्या
यहीं कुछ अटका, कुछ ठिठका है
मेरे धुँधले जीवन की स्पष्ट शब्दचर्या !
कुछ नहीं है
कहते हुए मैं भर गया हूँ ।
हम वही दुहराई हुई ज़िन्दगी जीते हैं
वही निराशा,. वही उम्मीद !