भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
वही रंग-ए-रूख़ पे मलाल था ये पता न था / सिद्दीक़ मुजीबी
Kavita Kosh से
वही रंग-ए-रूख़ पे मलाल था ये पता न था
मिरा ग़म भी शामिल-ए-हाल था ये पता न था
वही शाम आख़िरी शाम थी ये ख़बर न थी
वही वक़्त वक़्त-ए-ज़वाल था ये पता न था
मुझे कर गया जो तही तही भरे शहर में
वो मिरा ही दस्त-ए-सवाल था ये पता न था
मुझे बुत बना के चले गए कि न रो सकूँ
उन्हें मेरा इतना ख़याल था ये पता न था
वो हवा-ए-मर्ग थी जिस से दिल का दिया बुझा
मिरे दिल का बुझना कमाल था ये पता न था
मैं ‘मुजीबी’ ढूँढू कहाँ उसे वो कहाँ मिले
वो तो अपनी मिसाल था ये पता न था