भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
वह अबला आभूषण त्यागे हुए अपने / कालिदास
Kavita Kosh से
|
सा संन्यस्ताभरणमबला पेशलं धारयन्ती
शय्योत्सङ्गे निहितमसकृद् दु:खदु:खेन गात्रम्।
त्वामप्यस्त्रं नवजलमयं मोचयिष्यत्यवश्यं
प्राय: सर्वो भवति करुणावृत्तिराद्रन्तिरात्मा।।
वह अबला आभूषण त्यागे हुए अपने
सुकुमार शरीर को भाँति-भाँति के दुखों से
विरह-शय्या पर तड़पते हुए किसी प्रकार
रख रही होगी। उसे देखकर तुम्हारे नेत्रों से
भी अवश्य नई-नई बूँदों के आँसू बरसेंगे।
मृदु हृदयवाले व्यक्तियों की चित्त-वृत्ति प्राय:
करुणा से भरी होती है।