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वह आदमी जो लेटा है / हेमन्त कुकरेती

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वह आदमी जो लेटा है
उसके सिरहाने धरा पानी का बर्तन
लग रहा है कि सचमुच ही हो जैसे उसका सिर

अभी जब वो बीड़ी पी रहा था तो लगा कि गमला हो
जिसमें दोपहर को खिला कोई फूल
मुरझाना भूलकर दिपदिपा रहा हो रात में

औरत जो उसके साथ है ठेठ औरत है भंगिमा से
लेकिन शब्दों की मजबूरी या कल्पना की सीमा कि
वह चादर लग रही है
जिसे जब-जब आदमी ओढ़ लेता है
और जब-तब गिरा देता है शरीर से

दृश्य पूरा करने को बच्चा भी है
जो तपती हुई छत पर
लू की मार से त्रस्त चिड़िया की तरह
मुँह खोले हाँफ रहा है
जिसे सपने में भी कोई देवता हँसाने नहीं आता
वह चौंक रहा है नींद में
जैसे कोई खाई में धकेल रहा हो उसे

इस व्यापार में करुणा भले हो, प्रेम नहीं है
घृणा शायद हो लेकिन निरासक्त शान्ति के बीचोंबीच
जो हाहाकार है उसके लायक संगीत इस वातावरण में नहीं है

रात होने के बावज़ूद नहीं हो रही है स्तब्धता उजागर
सिर्फऋ पथराई हुई है चुप्पी
जो दृश्य में चिपचिपाती साँसों से ऊबकर
लपक रही है आकाश की तरफ...