वह किसी पुराने बिसरे गीत-सी / प्रभात त्रिपाठी
वह किसी पुराने बिसरे गीत-सी
गूँजती रहती थी
मन के किसी निभृत कोने में
समुद्र में नाव को
जीवन तरी की तरह गाते
मैंने शुरू की थी यात्रा
उसके साथ
तब चन्द्रमा मनुष्य के पैरों से
कलंकित हो चुका था
ऊँचे लोग ऊँचे ज्ञान विज्ञान के पाखण्ड में
एक दूसरे को धकियाते दौड़ रहे थे
हमने उन्हें देखा
और मुक्त हँसे साथ साथ
और एक दूसरे का हाथ पकड़
हम पंचवटी की ओर निकल आए
आम और बेल और महुए की छाँह में
हमने रचा सुख
गोल-मटोल नन्हा सुन्दर
हम यहीं रहेंगे जीवन भर
हमने कहा था;
हमारी आवाज़े एक दूसरे में विलीन
सरसराती हवा का गीत बन गईं
और अचानक बारिश देने लगी ताल
पूरब का समुद्र था बिलकुल बगल में
चन्द्रभागा की उजली चाँदनी
और रेत पर निर्वसन हम दोनो
गायब हो गए थे
जैसे अभी मैं गायब हो गया हूँ
गर्म रेत पर, गर्म चिता को
एकटक ताकते