भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
वह खत नहीं दस्तखत था / हिमांशु पाण्डेय
Kavita Kosh से
एक कागज़
तुम्हारे दस्तख़त का
मैंने चुरा लिया था ,
मैंने देखा कि
उस दस्तख़त में
तुम्हारा पूरा अक्स है ।
दस्तख़त का वह कागज़
मेरे सारे जीवन की लेखनी का
परिणाम बन गया ।
मैंने देखा कि
अक्षरों के मोड़ों में
ज़िंदगी के मोड़ मिले ,
कुछ सीधी-सपाट लकीरें थीं
कहने के लिए कि
सब कुछ ऐसा ही सपाट, सीधा है
तुम्हारे बिना ।
मुझे एक ख़त लिखना
गर हो सके,
क्योंकि वह तो ख़त नहीं,
दस्तख़त था ।