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वह गरीब कैसे हो सकता कैसे कहते-बेघर है / अमरेन्द्र

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वह गरीब कैसे हो सकता कैसे कहते बेघर है
धरती जिसका पलंग-बिछौना, महल मिला यह अंबर है

देखेंगे, बस्ती वाले सब जलने से कैसे बचते
आग लगी है जंगल-जंगल कोसों दूर समन्दर है

कितनी बार कहा यह तुमसे, बात-बात पर बतलाया
मानो तो सब देव यहाँ पर, ना मानो तो पत्थर है

समय आ गयाµघिस कर एड़ी पानी वहाँ बहाने का
जहाँ-जहाँ परती-पराँट है, जहाँ-जहाँ भी बंजर है

अन्धकार को मुँह की खानी पड़ सकती है अब से ही
सभी जगह बारात की रातें और दीवाली घर-घर है

जिसकी आँखों में जलती हो आग जलाने वाली ही
पानी नहीं बुझाने का हो, वह शायर क्या शायर है

मिटने वाली नहीं कथा है राम-जानकी, रावण की
जब तक भारत-लंका है यह और बीच में सागर है

आँसू छलके नहीं मिले करुणा के जहाँ-जहाँ देखा
देखा जगह-जगह पर मस्जिद-गिरिजाघर और मंदिर है

जो वह दोस्त नहीं है तो वह साफ-साफ है दुश्मन ही
तुम तो कुछ भी लगे न मुझको, तुमसे तो वह बेहतर है

जिसके आगे-पीछे भूतों-प्रेतों की टोली-जमघट
जिसका भाँग-धतूरा भोजन, बना हुआ वह शंकर है

बाहर पूज रहे हो किसको, किसको तुम यह छलते हो
चित्रागुप्त तो चित्तगुप्त है, वह तो अन्दर-अन्दर है

अब क्या इच्छाओं की लहरें नाव मेरी भटकायेंगी
रेतों पर अपने जीवन का डाल दिया जब लंगर है

चाहे जितना घुमा-घुमा कर टेढ़ा-मेढ़ा लिख लो तुम
पढ़नेवाला जान ही लेगा, लिखा ये किसका अक्षर है

मैंने ओढ़ा और बिछाया है सब ऋतु में इसको
कैसे कहते मानुस का तन फटी, पुरानी चादर है

पहले बसा, बसाना सीखो सुन्दरता को आँखों में
फिर देखोगे दुनिया की हर चीज निराली सुन्दर है

तुम भी अपने सारे सुख की सेनाओं को खड़ा करो
पीछे-पीछे लगा हुआ जो सारे दुखों का लश्कर है

धन-दौलत है, महल-अटारी, जंगल-पर्वत सब तेरे
लेकिन अमरेन्दर के जैसा हासिल भी क्या आदर है ।