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वह चीख़-चीख़कर अपने तमाम वर्ष वापस मांगती है / विजय कुमार

Kavita Kosh से
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हम बचपन से ऐसी स्त्रियों के बारे सुनते आए हैं जो एक दिन पागल हो जातीं हैं . एक भरी पूरी गृहस्थी और फैले हुए सामान के बीच एक स्त्री पागल हो जाती है . कहा जाता है , इस औरत पर देवी आ विराजती है. वह एक दिन बेकाबू हो जाती है. वह बाल खोल कर ऊँची आवाज़ में आँय – बाँय बकती है. एक स्त्री का स्वर अचानक अपरिचित हो जाता है . उस के गले से निकलते हैं दूसरों के विचार , गैरो की बददुआएं , किसी दूर के आदमी की धमकियाँ ,सर्वनाश की भविष्यवाणियाँ . एक चीखती हुई स्त्री को कुछ भी समझ नहीं आता . वह लौट जाना चाहती है किसी सिम्त . वह अपने जिए हुए वर्षों को मिटा देना चाहती है. वह चीख चीख कर बताती है अपनी देह पर हमारी उँगलियों के निशान . वह उन होंठों को उतार कर कर एक तरफ धर देती है जिन पर हमने अपने धोखेबाज़ चुम्बन अंकित किए होते हैं. एक पागल कही जाने वाली स्त्री बताती है उन क्षणों की व्यर्थता को जब हम ने अपने इन दोनों हाथों से उस के स्तनों को झिंझोड़ा था. ऐसी स्त्री अपनी कोख में संगृहित हमारे उन स्वार्थों को उघाड़ती है जिन्हें हम अपना भविष्य कह कर सहलाते रहते हैं . स्त्री गिड़गिड़ाती है , बस एक बार मुझे अपनी देह से निकल कर चारागाहों की तरफ चले जाने दो ! मैं तुम्हारे सारे गुनाहों को माफ कर दूँगी . एक बदहवास स्त्री के अवसाद में जाने कितने रेगिस्तानों की गर्मी , मवेशियों का बहता हुआ रक्त और बार बार मँडराती हुईं छायाएं होतीं हैं जिन्हें हम समझ नहीं पाते . एक जवान स्त्री की बड़बड़ाहट में उस का ऐसा अकेलापन छिपा होता है जिस की तुलना केवल पुराने खंडहरों से की जा सकती है . वह अलाव के किनारे बैठ कर की गई बतकहियों ,सहयात्राओं के क़िस्से , बैंक बेलेंस , क़सीदाकारी , तकिए के गिलाफ और स्वादिष्ठ व्यञ्जनों के झूठ को छिटककर बाहर आ गई होती है . जिस कमरे में यह औरत अपने बाल नोंचती है वहाँ एक पलंग , एक सिंगारदान और ज़ेवरों की एक अलमारी भी होती है. पर सब से भीतर के कमरे में यह स्त्री माँगती है , हमसे अपने जिए हुए वर्ष. वह चीख चीख कर अपने तमाम वर्ष हम से वापस माँगती है. एक पागल कही जाने वाली स्त्री को सब से ज़्यादा याद आता है अपना बचपन और वह हँसने लगती है . वह कहती है , जिसे तुम रोटी कहते हो , उस पर मैं फूल, सितारों, चन्द्रमा और घरौंदों के बारे कविता लिखना चाहती थी . यह स्त्री खोलती है रहस्य उन दरवाज़ों के जो भीतर ही नहीं बाहर की तरफ भी खुलते हैं . उसे दर्पण में कोई अक्स डराता है और वह नींद में कुछ पत्थरों को ढूँढती फिरती है. स्त्री हँसती है . स्त्री रोती है . स्त्री चीखती है. स्त्री काँपती है. काँपते काँपते वह कहती है, मैं फिर से भरोसा करना चाहती हूँ किसी अनश्वरता में . परंतु एक स्वप्नजीवी स्त्री के शरीर से निपटने के हमारे अपने तरीक़े हैं. एक हँसती हुई स्त्री का झोंटा पकड़कर खींचा जाता है. एक स्त्री के गालों पर तड़ातड़ यतमाचे जड़े जाते हैं. एक बदहवास औरत के बदन पर धूप , अगरबत्ती , नींबू , मंत्र और अंगारों को रख दिया जाता है. बेचैन स्त्री की देह एंठती है. एक हौल सा उठता है उस के भीतर . वह काँपती है . काँपते काँपते वह बेदम हुई जाती है. अंत में निढाल हो कर वह हमारी दुनिया में दोबारा लौट आती है. एक नीली पड- गई सुस्त देह को हम सहलाते हैं धीरे धीरे . दिलासा देते हैं कि तुम्हारे भीतर कोई और था वह तुम नहीं . तुम्हारा स्वभाव तो हम जानते हैं . अच्छी तरह जानते हैं. और वह हमारे पास सुरक्षित है. एक बेदम हो चुकी स्त्री से कहा जाता है , अच्छा हुआ तुम लौट आईं किसी के चंगुल से. तब कोई नहीं देख रहा होता कि एक लौटा हुआ चेहरा अब भय और अपराध के अँधेरे में पत्थर हो चुका है .