भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
वह जो लगता था पयम्बर इक दिन / रमेश 'कँवल'
Kavita Kosh से
वह जो लगता था पयम्बर इक दिन
अपना ही भूल गया घर इक दिन
कांच का घर उसे याद आयेगा
खूब पछतायेगा पत्थर इक दिन
ठंड पंहुचायेगा,राहत देगा
रेत का गर्म ये बिस्तर इक दिन
लाज रख लेगी तेरे जज़्बों की
मेरे अहसास की चादर इक दिन
आतिशे-वक़्त में तपते तपते
हीरे बन जायेंगे कंकर इक दिन
लुत्फ़े-शोहरत2 मुझे दे जायेगा
तपते लफ़्ज़ों3 का समुंदर इकदिन
पाप जल जायेगा दुनिया का 'कंवल’
आंख जब खोलेगा शंकर इक दिन
1. समयकीअग्नि , 2. ख्यातिकाहर्ष, 3. शब्दों।