भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वह टूटा जी, जैसा तारा / माखनलाल चतुर्वेदी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वह टूटा जी, जैसा तारा!
कोई एक कहानी कहता
झाँक उठा बेचारा!
वह टूटा जी, जैसे तारा!

नभ से गिरा, कि नभ में आया!
खग-रव से जन-रव में आया,
वायु-रुँधे सुर-मग में आया,
अमर तरुण तम-जग में आया,
मिटकर आह, प्राण-रेखा से
श्याम अंक पर अंक बनाता,
अनगिनती ठहरी पलकों पर,
रजत-धार से चाप सजाता?
चला बीतती घटनाओं-सा,-
नभ-सा, नभ से-
बिना सहारा।
और कहानी वाला चुपके
काँख उठा बेचारा!
वह टूटा जी, जैसे तारा!

नभ से नीचे झाँका तारा,
मिले भूमि तक एक सहारा,
सीधी डोरी डाल नजर की
देखा, खिला गुलाब बिचारा,
अनिल हिलाता, अनल रश्मियाँ
उसे जलातीं, तब भी प्यारा-
अपने काँटों के मंदिर से
स्वागत किये, खोल जी सारा,
और कहानी-
वाली आँखों
उमड़ी तारों की दो धारा,
वह टूटा जी, जैसे तारा!

किन्तु फूल भी कब अपना था?
वह तो बिछुड़न थी, सपना था,
झंझा की मरजी पर उसको
बिखर-बिखर ढेले ढँपना था!
तारक रोया, नभ से भू तक
सर्वनाश ही अमर सहारा,
मानो एक कहानी के दो
खंडों ने विधि को धिक्कारा
और कहानी-
वाला बोला-
तीन हुआ जग सारा।
वह टूटा जी, जैसे तारा!

अनिल चला कुरबानी गाने,
जग-दृग तारक-मरण सजाने,
खींच-खींच कर बादल लाने,
बलि पर इन्द्र-धनुष पहिचाने,
टूटे मेघों के जीवन से
कोटि तरल तर तारे,
गरज, भूमि के विद्रोही
भू के जी में उकसाने,
और कहानी वाला चुप,
मैं जीता? ना मैं हारा!
वह टूटा जी, जैसे तारा!

मरुत न रुका नभो मंडल में,
वह दौड़ा आया भूतल में,
नभ-सा विस्तृत, विभु सा प्राणद,
ले गुलाब-सौरभ आँचल में-
झोली भर-भर लगा लुटाने
सुर नभ से उतरे गुण गाने,
उधर ऊग आये थे भू पर,
हरे राज-द्रोही दीवाने!
तारों का टूटना पुष्प की--
मौत, दूखते मेरे गाने,
क्यों हरियाले शाप, अमर
भावन बन, आये मुझे मनाने?
चौंका! कौन?
कहानी वाला!
स्वयं समर्पण हारा
वह टूटा जी, जैसे तारा!

तपन, लूह, घन-गरजन, बरसन
चुम्बन, दृग-जल, धन-आकर्षण
एक हरित ऊगी दुनिया में
डूबा है कितना मेरापन?
तुमने नेह जलाया नाहक,
नभ से भू तक मैं ही मैं था!
गाढ़ा काला, चमकीला घन
हरा-हरा, छ्न लाल-लाल था!
सिसका कौन?
कहानी वाला!
दुहरा कर ध्वनि-धारा!
वह टूटा जी, जैसे तारा!