वह तीन साल का था / अजित कुमार
उसने मुझे सिखाया—
यहाँ ‘रुको’ नहीं;
‘ठहरो’ कहना चाहिए था ।
कडुआती हुई आँखों से आँसू पोंछता मैं…
उसने मुझे समझाया—
धुआँ उगलती कुप्पी, बस, मिल की चिमनी,
और बीड़ियों का संबंध ।
धुँधली और चुन्धी पलकें उठाकर
मैंने देखी—
उसकी सहज, निर्मल, अन्तर्ग्राही दृष्टि ।
और सधी, मजबूत, विश्वासभरी चाल…
जिसके पीछे-पीछे जाकर
हम दोनों
पहुँच गये वहाँ
जहाँ से आगे कोई रास्ता न था ।
मैं झिझका,
खिसियाहट और उलझन से भर गया ।
किन्तु वह हँसा ।
उसके लिए यह सब था केवल कौतुक ।
बोला—
देखो, तुम्हें मैं ले आया न ।
और असहाय मुझे कहना पड़ा—हाँ ।
फिर कितनी गलियों, मोड़ों और घुमावदार
सड़कों को पार कर
जब हमें दिखी घर ले जाने वाली सीधी राह
और मैं, थोड़े संतोष या कहूँ : विजय-गर्व से, हँसा
तो वह फूट-फूट कर रो उठा ।
नहीं, नहीं, नहीं, ।-
वह चिल्लाया ।
और हतप्रभ हो मुझे दूसरी तरफ़ मुड़ना पड़ा ।
आ: ।
आँसुओं से धुला उसका मुख ।
सजल…
या शायद कुटिल…
मुस्कान ।